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कविता

पीली साड़ी पहनी औरत

विमलेश त्रिपाठी


सिन्दूर की डिबिया में बन्द किया
एक पुरुष के सारे अनाचार
माथे की लाली

दफ्तर की घूरती आँखों को
काजल में छुपाया
एक खींची कमान

कमरे की घुटन को
परफ्यूम से धोया
एक भूल-भूलैया महक

नवजात शिशु की कुँहकी को
ब्लाउज में छुपाया
एक खामोश सिसकी

देह को करीने से लपेटा
एक सुरक्षित कवच में
एक पीली साड़ी

खड़ी हो गयी पति के सामने
- अच्छा, देर हो रही है -
आँखों में याचना
...और घर से बाहर निकल गयी

 


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